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लघुकथाएँ

शहर में

दीपक मशाल


वह बहुत देर तक गौर से देखता रहा कि सड़क के दूसरे किनारे खड़ा सब्जीफर्रोश किस तरह अपने हाथ ठेले के एक किनारे बैठी अपनी पाँच-छह साल की बच्ची को फुर्सत मिलते ही पढ़ाने लगता। अक्सर ऐसे दृश्यों पर नजर रहती उसकी, जानकारी जुटाकर सचित्र अपने ब्लॉग, सोशल अकाउंट पर डाल देता। कई बार अखबारों में भी उसकी ये पोस्ट आ जातीं।

वह धीरे-धीरे ठेले के नजदीक आ गया और सब्जीवाले से बात करने लगा।

- तुम्हारी बेटी है?

- जी सर।

उसने जवाब दिया

- क्या पढ़ा रहे हो?

- जित्ता खुदे आता है उत्ता बता दे रए हैं सर, स्कूल भेजे की तो औकात नहीं अबी

- अरे अच्छा है, करते रहो। कल को स्कूल भी जाएगी ही। कहाँ से हो?

- रहे वारे तो यू।.पी. के हैं, लेकिन अब यहीं गुजारा है।

- हम्म...। तुम्हारी फोटो निकालकर डालूँगा इंटरनेट पर, मशहूर हो जाओगे।

कहकर उसने बिना जवाब की प्रतीक्षा किए जेब से स्मार्ट फोन निकाला और बेटी समेत उस आदमी की फोटो लेने लगा।

- न ना सर ई सब नहीं।

उसने कैमरे के आगे हाथ लगाते हुए उसे रोका। दो पल को कैमरे वाला स्तब्ध रह गया और फिर खीझकर दूसरी ओर जाने लगा। पीछे से सब्जी वाले ने आवाज दी।

- और कौनो दिक्कत नाहीं सर, बस फोटू कंपूटर में जावेगी तो गाँव में उहाँ सब जान जावेंगे कि हम इहाँ शहर में सब्जी...।


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